बलि के लिए बीरू की खरीद


किंतु, राजा तो पुण्य कमाकर अपने सिंहासन के वारिस को पाना चाहता था । इसलिए, राजा ने अपने सैनिकों को धन से लड़ी खच्चरें देकर किसी ऐसे ब्राह्मण बालक को खरीद लाने के लिए भेजा जो बलि की शर्तों पर पूरा उतरता हो और जिसके माता पिता धन के एवज में बेचने को राजी हो । यह सैनिक पुरे राज्य में घूम आये, किंतु कोई भी माँ-बाप इस सौदे के लिए तैयार न हुआ । सर्वांग सम्पूर्ण तो क्या लोग अपने लूले-लंगड़े बच्चों को भी घर में छिपा लेते । बूढ़ी औरतें कहती - " राजा पाप कमाने को उतावला हो रहा हैं । " तब एक दिन जब राजा के सैनिक बीरपुर की गलियों में ब्राह्मण जाति के बालक को बेचने का ढिंढोरा पीटते हुए गुज़रे तो लद्धा नामक एक ब्राह्मण के ह्रदय में लोभ उमड़ आया । वह बेहद निर्धन था । उसकी पत्नी जमना ने पति के इस निर्णय का विरोध न करके इस सौदेबाजी में उसका साथ दिया । वह गुरबत से घृणा करती थी और जल्दी ही अमीर बनना चाहता थी । उसे सोने - चांदी के गहनों का बेहद चाव था । जिस समय लद्धा और जमना ने अपने पुत्र का मोल-तोल किया उस समय उनका पुत्र बीरू बलोल खडड के पार पशु चरा रहा था । लद्धा ने राजा के सैनिकों से भरपूर सौदेबाजी की । अपने घर और आंगन में सुख-सुविधा की बेशुमार वस्तुएं रखवाईं । तब सैनिकों से कहा-" मैं अपने पुत्र के तोल से दोगुना सोना और बहुमूल्य रत्न लूंगा । " रूप बदल कर इस सैनिक दल में शामिल फिड्डू चेले का संकेत पाकर सैनिकों ने लद्धा की यह शर्त भी मान ली तब लद्धा नामी उस ब्राह्मण ने उन्हें साथ ले जाकर बलोल खडड की चारागाह पर अपना पुत्र बीरू दिखलाया । सैनिकों ने घेरा डालकर बीरू बालक को पकड़ लिया । उसे अपने संग लेकर उसके वजन से दोगुना राशि के सोना रत्न आदि लद्धा को दिए । इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानकर लद्धा की ख़ुशी का ठिकाना न रहा । इस सौदे पर उसका और उसकी पत्नी का चेहरा खिल उठा । सैनिक-दल जब बीरू को जम्मू - बाहवा की ओर ले जाने लगा तब इस निरीह बालक की माता के ह्रदय में स्त्रियोचित ममता उमड़ पड़ी । शायद उसे अहसास था कि माता-पिता होते हुए भी उन्होंने लोभवश बालक से अन्याय किया है । वह दहाड़ मार कर रो पड़ी । तब वह दो रोटियां और दाल लेकर आई और बीरू को खाने के लिए दीं । वह अपने पुत्र को आखरी भोज खिलाकर विदा करना चाहती थी । उसका अभिप्राय सैनिकों द्वारा लाये गए खज़ाने को ठुकरा कर पुत्र बीरू को छुड़ाने का कतई न था । नियति रूपी चील का अपने पर पड़ा झपट्टा देखकर बीरू स्तब्ध खड़ा था । जो माता -पिता अपना सब कुछ गवां कर भी संतान की रक्षा करते हैं, जब वही अपनी औलाद के दुश्मन बन जाएं तो न्याय की गुहार कहां की जाए । बीरू के मन में आया कि जो माँ-बाप मुझे अकारण मौत के मुंह में धकेल रहे हैं, उनके घर का अन्न खाने से बड़ा दूसरा पाप कोई नही है । उसकी भूख तो वैसे ही मर चुकी थी ।