एक दिन भयंकर भूचाल हुआ । सहसा तीनों की तप -
निद्रा टूट गई । बिरफानाथ ने देखा एक युग बीत चुका है ।
सामने
के दोनों गुरुभाई जोगी भी जाग्रत हुए ।
एक
गुरुभाई ने कहा -"एक युग के तप से मैं बड़ी कठनाई से पाताल - लोक में सुरंग
बनाकर पुहंचा ।
वहां
शस्त्रो मृतात्म्ये चीख - पुखर मचाए हुए थीं । मैं कुछ कर पाता उससे पहले मेरी तप
- अग्नि समाप्त हो गयी ।
अब
मेरे इस शरीर रुपी चोले का अंत होने को आया है । इसे भी जीते - जी च्यूंटियां और
कीट - पतंग खा गए हैं । "
बिरफानाथ
-"आप अब क्या चाहते हैं ?"
गुरुभाई
-""मैं चाहता हूँ ,पाताल में भटक रही आत्मओं को प्रकाश मिले । "
बिरफानाथ
-"मैं अपने समस्त तप का बल पाताल - लोक में भटक रही आत्मओं के लिए अर्पित
करता हूँ । "
उनके
ऐसा संकल्प लेते ही गुरुभाई बोल पड़ा -"आहा ,वहां पर्क्ष हो गया है । अब
मैं अगली मंजिल की ओर जा रहा हूँ। "
ऐसा
कहकर उसकी आत्मा आकाश में लीन हो गयी ।